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पहाड़ का लोकनृत्य 'तांदी'... जिसके गोल घेरे में जल-जमीन, हंसी-खुशी, आपदा-विपदा सब समा जाते हैं

अभी हाल ही में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के मुखबा गांव पहुंचे थे तो उनका स्वागत तांदी गीत और नृत्य से हुआ. पारंपरिक वेशभूषा में सजे स्थानीय महिलाओं और पुरुषों ने रासो-तांदी के साथ पीएम को सम्मान दिया था. लेकिन क्या है यह तांदी? कैसे गाया और नाचा जाता है? कब और कहां होता है इसका आयोजन?

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पहाड़ का लोकनृत्य तांदी
पहाड़ का लोकनृत्य तांदी

फिल्म 'राम तेरी गंगा मैली' में लता मंगेशकर का गाया एक खूबसूरत गीत है-                                                                                                   हुस्न पहाड़ों का, ओ सायबा हुस्न पहाड़ों का
  क्या कहना के बारहों महीने यहां मौसम जाड़ों का... 
                                                              

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इस गीत में पहाड़ों की खूबसूरती, उनके खुशगवार सर्द मौसम और वहां रहने वालों की जिस जिंदादिली का जिक्र हुआ है, इस खूबसूरती को और भी चार चांद लगाते हैं पहाड़ के लोकगीत. इन लोकगीतों में पहाड़, नदियां, जंगल तो शामिल होते ही हैं, इसके साथ ही इनमें समेट लिए जाते हैं, पहाड़ी पशु-पक्षी, रीति-रिवाज, दिन का संघर्ष और लंबी रातों की दास्तान... इन सारे शब्दों से सजे गीतों के बोल जब फूट पड़ते हैं तो कदम थिरकने लगते हैं, लोग गलबहियां मिलने लगते हैं और फिर धीरे-धीरे इस मिलन का घेरा बढ़ने लगता है. उत्तराखंड के गढ़वाल में इसी घेरे को कहते हैं तांदी नृत्य... लोक परंपरा का ऐसा डांस फॉर्मेट जो गोल घेरे में होता है.

लोक-संस्कृति का गढ़ है गढ़वाल

उत्तराखंड का गढ़वाल क्षेत्र,  कुदरत ने जब पहाड़ के हिस्से को जन्नत जैसी खूबसूरती नेमत में दी तो इसके साथ ही ऊंची चोटियों वाले जमीन के इस टुकड़े को लोक संस्कृति की समृद्धि भी नसीब हुई. जल-जंगल जमीन वाला ये हिस्सा रोमांच तो पैदा करता ही है, इन लोगों को करीब से जानिए तो आप इनके भीतर बसी मस्ती से भी रूबरू हो सकेंगे. गढ़वाली जब खुश होते हैं, परिवार और समाज के साथ मिलकर खुशियां मनाते हैं तो वह इस सेलिब्रेशन में सबको शामिल कर लेते हैं.

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उनका ये शामिल करने का तरीका बड़ा ही पारंपरिक और न्यारा सा है. पारंपरिक कपड़ों में सजे-धजे लोग एक-दूसरे की कमर में हाथ डालकर घेरा बना लेते हैं और इसी घेरे में नृत्य करते हैं. कमर में हाथ डालना जरूरी नहीं, ये केवल एक शुरुआती स्टेप है, फिर एक बार जब डांस शुरू हो जाता है, फिर तो उसी घेरे में रहकर सब एक जैसा और एक साथ डांस करते हैं.  

tandi dance aparna rangar

तांदी नृत्य से हुआ था पीएम मोदी का स्वागत

याद कीजिए, अभी हाल ही में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के मुखबा गांव पहुंचे थे तो उनका स्वागत इसी तांदी गीत और नृत्य से हुआ. पारंपरिक वेशभूषा में सजे स्थानीय महिलाओं और पुरुषों ने रासो-तांदी के साथ पीएम को सम्मान दिया था. 
लेकिन क्या है यह तांदी? कैसे गाया और नाचा जाता है? कब और कहां होता है इसका आयोजन? आइए, तांदी की पूरी कहानी बताते हैं. 

कैसे होता है तांदी नृत्य?

गढ़वाली संस्कृति की खासियत पर बात करते हुए स्थानीय जानकार महावीर 'रवांल्टा' बताते हैं कि तांदी अर्द्ध वृताकार यानी सेमी सर्कल नृत्य है. जिसमें महिलाएं और पुरुष दोनों ही शामिल होते हैं. इस अर्द्ध वृत्त वाली पंक्ति में आगे पुरुष होते हैं और आखिरी पुरुष के बाद स्त्रियां एक के बाद एक गुंथती जाती है. लेकिन जब लोगों की लाइन लंबी होती जाती है तो ये गोलाकार रूप ले लेता है. कई बार लोगों की भीड़ जब जगह के हिसाब से ज्यादा हो जाती है तो गोले के अंदर गोले बनते जाते हैं.

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तांदी में सबसे आगे अनुभवी पुरुष रहता है जो सारे गीत व नृत्य का एक तरीके से संचालन कर रहा होता है. हालांकि इसे लेकर कोई नियम नहीं है. इसमें पहले व्यक्ति का दाहिना (Right) हाथ खुला रहता है. उसका बांया (Left) हाथ तीसरे के दाहिने हाथ में होता और उनके हाथ बीच के व्यक्ति के कमर की सीध में सामने मिलते हैं. हाथों के इस अरेंजमेंट के साथ पैरों के मूवमेंट का भी रोल होता है. नर्तकों के दाहिने पैर बाएं की तरफ संचालित होते हैं. हालांकि वक्त के साथ-साथ तांदी फॉर्म में Creativity भी शामिल होती गई है और गढ़वाली परंपरा की पहचान तांदी नृत्य अब कई तरह से किया जाता है. 

तांदी नृत्य

तांदी नृत्य, गीत की स्पीड और रिदम के हिसाब से  किया जाता है. लय-ताल, भाव के मिश्रण के साथ तांदी करते लोग देखते ही बनते हैं. महावीर सिंह ने बताया कि तांदी गीतों का विषय क्षेत्र असीमित रहा है. प्रेम, सौन्दर्य, करुणा, दैवीय आपदाएं, घटनाचक्र, इतिहास, व प्रचलित प्रथाएं तांदी गीतों का विषय बनती रही हैं और इनके वर्णन के आधार ही नृत्य भी बनता-बदलता रहा है. 

फिर भी विषयों के प्रकार पर नजर डालें तो रवांई क्षेत्र के तांदी गीतों को अलग-अलग तरीके से बांटा-समझा जा सकता है.

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ऐतिहासिक गीत

होता क्या है कि जो घटना किसी समय में सम सामयिक यानी कि उस समय के दौरान रिलेट करती थी, वही घटना किसी और काल में ऐतिहासिक बन जाती है. यह ही फंडा है तांदी के एतिहासिक गीतों का. रवांई क्षेत्र के गीतों में सामयिक से एतिहासिक हो चले तांदी गीतों का खास स्थान है. समय-समय पर हिमालय क्षेत्र ने अनेक प्राकृतिक व दैवीय आपदाओं को करीब से देखा और उनका सामना भी किया. 

इन आपदाओं की त्रासदी लोक गीतों में शामिल हो गई और इस तरह पहाड़ को लोगों की ये वेदना अमर हो गई. सन् 1978 में आई उत्तरकाशी की बाढ़, 1980 में ज्ञानसू में हुआ भूस्खलन और 21 अक्टूबर 1991 को आए भयानक भूकंप में जो नुकसान हुआ और लोगों ने इस आपदाओं में जो भी दुख सहन किए, बाद में यह सारा दुख, तांदी गीतों में तब्दील हो गया. ये गीत आज भी गाए गाए जाते हैं और इन्हें सुना जा सकता है. 

सन् 1978 में आयी भयंकर बाढ़ से डबराणी नाम की जगह पर भागीरथी का पानी इकट्ठा होने पर उसका कुछ हिस्सा बह गया था और इसी बाढ़ में रतूड़ी सेरा का भी काफी हिस्सा बड़ा बह गया था. इस आपदा पर तांदी गीत लिखा गया, इसके बोल देखिए- 

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चूड़ी के बंगार,
कण बगण तगी मां डबराणी ढंगार. थाली गोटी गेरू
कण वगण लगी मां रतूड़ी कृ सेरू
(डबराणी का गंगार कैसे बढ़ने लगा/मां रतूड़ी सेरा कैसे बहने लगा)

प्रेम और शृंगार प्रधान तांदी

किसी भी बोली और भाषा में प्रेम की अभिव्यक्ति कैसे कई जाए, ये सवाल बेहद खास रहा है. रवांई के तांदी गीत भी इस विषय से अछूते नहीं हैं. स्त्री-पुरुष, प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी, इसके अलावा अन्य रिश्ते जैसे भाई-बहिन, मां-बेटी आदि के प्रेम तांदी में खूब ढले हैं, लेकिन सर्वाधिक गीत स्त्री-पुरुष संबंध पर ही आधारित हैं. 

तांदी नृत्य

पौराणिक कथाओं के तांदी नृत्य
रंवाई क्षेत्र के गांवों में अनेक देवी-देवता पूजे जाते हैं. यहां के वासियों के अलग-अलग ईष्ट देव है. उनके मन्दिर हैं. मेलों में उनकी पालकी सजाते हैं, उन्हें पूजते हैं और फिर देवता की पूजा में नाचते हैं. क्षेत्र के अधिकांश वासी अपने को पांडवों का वंशज मानते हैं इसके अलावा अनेक स्थानों पर कौरवों को भी पूजा जाता है. इसलिए तांदी गीतों में इन देवताओं की महिमा, शक्ति, सौन्दर्य व उपासना का भी जिक्र होता है. रंवाई क्षेत्र में वर्ष भर में अनेक जातर और मेलों का आयोजन होता रहता है. इन मेलों का बखान तांदी गीतों के जरिए खूब किया गया है. 

शोकगीत भी है तांदी
ऐसा नही है कि तांदी सिर्फ खुशी के गीत और उल्लास का नृत्य है. यह शोक का भी गान है. जन्म, विवाह, तीर्थयात्रा पर खूब तांदी रचे गए हैं, इसके उलट आकस्मिक मौत, हादसा को लेकर भी तांदी रचे गए हैं. ये गीत हृदय की गहराई से करुणा, वेदना व दुख दर्द को सामने रखते हैं. इन गीतों में घटनाओं का बड़ा ही मार्मिक वर्णन हुआ है. 

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अब कल्पना कीजिए, गांव में मेला है. मां-बाप अपनी बेटी-दामाद का इंतजार कर रहे हैं. वो आने वाले हैं, लेकिन यह इंतजार कभी पूरा नहीं हो पाता है. क्योंकि रास्ते में नदी बढ़ आई और पुल ढह गया. बेटी-दामाद नहीं रहे, और इस हृदय विदारक घटना का वर्णन तांदी गीत में हुआ है.

पहाड़ जितने ऊंचे हैं घाटियां उतनी ही गहरी. यही बात पहाड़ों की संस्कृति पर लागू होती हैं. पथरीले टेढ़े-मेढ़े और ऊंच-नीच रास्तों वाले पहाड़ों के बीच से जिस तरह नदियां की शीतल धारा बहती है, ठीक उसी तरह पहाड़ी धरती की गोद में संस्कृतियां भी पलती-बढ़ती हैं. तांदी गीत और नृत्य ऐसी ही कलाओं में से एक हैं. ये धरोहर हैं, विरासत हैं और पहाड़ की पहचान हैं.

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