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जब लाहौर तक पहुंच गई इंडियन आर्मी... इस रेजिमेंट ने बदल दिया था 1965 की जंग का रुख

दुश्मन के गढ़ में 50 किलोमीटर अंदर जाकर अपने से दोगुनी बड़ी सेना से भिड़ना, एक-एक कर दुश्मन को खत्म करना किसी अचंभे से कम नहीं था. इस नामुमकिन से मिशन को अंजाम सिर्फ 550 सैनिकों ने दिया था. इसमें से 58 युद्धवीर शहीद हो गए थे. यह दिन इतिहास बदल सकता था, लाहौर पर कब्जा हो सकता था.

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परेड करते जाट रेजिमेंट के सैनिक (फोटो - Getty)
परेड करते जाट रेजिमेंट के सैनिक (फोटो - Getty)

भारतीय सेना ने कई बार विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी बहादुरी से जंग का रुख बदला है. ऐसे तमाम किस्से भरे पड़े हैं. ऐसा ही एक वाकया 1965 के जंग में हुआ था, जब लाहौर भारतीय सेना लाहौर तक पहुंच गई थी. यह मुमकिन हुआ था इंडियन आर्मी के सबसे पुराने और दिलेर रेजिमेंट की वजह से. 

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12 सितंबर 1965 को भारत पाकिस्तान का वजूद पूरी तरह से मिटा सकता था. एशिया का सबसे लंबा रास्ता ग्रैंड ट्रंक रोड अमृतसर लाहौर को जोड़ता है. यह रास्ता डोगरा से होकर गुजरता है. डोगरा लाहौर से महज 13 किलोमीटर दूर इगल नहर के पास बस एक छोटी सी बस्ती है. वही इगल नहर जहां से पाकिस्तान लाहौर की निगरानी करता था. भारतीय सेना को डोगरा और इस नहर को पार कर लाहौर पर कब्जा करना था. 

इतिहास बदल सकती थी वो लड़ाई
दुश्मन के गढ़ में 50 किलोमीटर अंदर जाकर अपने से दोगुनी बड़ी सेना से भिड़ना, एक-एक कर दुश्मन को खत्म करना किसी अचंभे से कम नहीं था. इस नामुमकिन से मिशन को अंजाम सिर्फ 550 सैनिकों  ने दिया था. इसमें से 58 युद्धवीर शहीद हो गए थे. यह दिन इतिहास बदल सकता था, लाहौर पर कब्जा हो सकता था.  लेकिन युद्ध विराम घोषित कर दिया गया.  भारत की सरकार और सेना ने उस दिन अमन चैन और सम्मान को चुना. कौन थे यह अजय सैनिक जिन्होंने एक ही बार में पूरी जंग का रुख बदल दिया. यह सैनिक थे जाट रेजिमेंट के.

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जाट रेजिमेंट का इतिहास
जाट रेजीमेंट का इतिहास 200 साल से भी ज्यादा पुराना है. जाट शब्द जाट समुदाय से आया है. पीढ़ियों से  जाटों का पेशा जमींदारी, खेती और मावेशी का पालन पोषण रहा है, लेकिन कब और कैसे इनकी धरती सैनिकों की जननी बन गई, यह जानना दिलचस्प होगा. जाट रेजिमेंट को समझने  से पहले  जाट राजा नाहर सिंह का किस्सा जानना जरूरी है. एपिक के रेजिमेंट डायरी के मुताबिक जाट राजा नाहर सिंह सिर्फ 32 साल के थे. जब 1857 की क्रांति की आग में उन्होंने अपना सब कुछ झोंक दिया.

Jat Regiment march

 

नाहर सिंह की बहादुरी से प्रभावित थे अंग्रेज 
अंग्रेजों ने कई बार उनसे सौदा करने की कोशिश की, लेकिन नाहर सिंह को सूली चढ़ना मंजूर था पर अंग्रेजों की गुलामी बिल्कुल नहीं. इससे अंग्रेज काफी परेशान हो गए और उन्होंने एक षड्यंत्र रचकर, धोखे से नाहर सिंह को दिल्ली बुलवा लिया और गिरफ्तार कर फांसी पर चढ़ा दिया. नाहर सिंह  इतिहास में हमेशा एक वीर योद्धा माने गए. नाहर सिंह की बहादुरी देख अंग्रेजों ने ठान लिया कि जाट सैनिकों को अपनी फौज का हिस्सा बनाया जाए.  अंग्रेजों को जाट सैनिकों से हमेशा तगड़ा मुकाबला मिला था.

ऐसे पड़ी जाट रेजिमेंट की नींव 
जाट रेजिमेंट की पहली बटालियन की नींव 1803 में बंगाल नेटिव इन्फेंट्री के रूप में पड़ी और फिर 1857 के बाद जाटों की भर्ती बंगाल आर्मी की लगभग हर एक शाखा में हुई, लेकिन 1922 में जाट रेजिमेंट को औपचारिक रूप से भारतीय सेना की इन्फेंट्री यूनिट में स्वतंत्र रेजिमेंट का दर्जा दिया गया और 1947 में फाइनली द जाट रेजिमेंट बना.

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जाट रेजिमेंट से जुड़े हैं बहादुरी के कई किस्से
ऐसे कई बहादुरी के किस्से जाट रेजिमेंट से जुड़े हुए हैं. जाट रेजिमेंट हिंदुस्तान की सबसे पुरानी और सबसे सम्मानित रेजिमेंट में से एक है जो ना सिर्फ जानी जाती है अपने सैनिकों की बहादुरी के लिए बल्कि उन तमाम चुनौतियों के लिए भी जिन्हें पूरा करना नामुमकिन होता है. इसमें अधिकतर जवान हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के ही होते.

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बरेली में है इसका सेंटर
उत्तर प्रदेश के शहर बरेली में जाट रेजिमेंट का सेंटर है. जाट रेजिमेंट के अफसर और जवान जो कि जिंदादिली की मिसाल हैं, आज यहां सीना चौड़ा करे रहते हैं. यह चंद इन्फेंट्री रेजिमेंटल सेंटर्स में है जो कभी बरेली से मूव नहीं हुए. शुरू से एक ही जगह रहने की वजह से जाट रेजिमेंट को बहुत बड़ा एडवांटेज मिला है. यहां का इंफ्रास्ट्रक्चर सालों साल बढ़ता गया और बेहतर होता गया. यहां पर आपको हेरिटेज बिल्डिंग्स मिलेंगी. यहां का परेड ग्राउंड हो, चाहे वो यहां का पीटी इंफ्रास्ट्रक्चर हो, चाहे व मेंस हो. सब ब्रिटिशर्स के टाइम की है.

नबंर नौ से है गहरा रिश्ता
नाइन जाट रेजिमेंट का इस नंबर नाइन से गहरा रिश्ता है. आज के समय की जाट रेजिमेंट 1922 में नाइंथ जाट रेजिमेंट के रूप में स्थापित की गई थी और यह सेना की तमाम रेजिमेंट्स की गिनती में भी नौवें स्थान पर थी और इसीलिए रोमन अंकों में लिखा गया नंबर नाइन इनकी पहचान बन गया. यही रेजिमेंट का चिह्न भी है. शुरुआत में रेजिमेंट के चिह्न पर नौ अंक के ऊपर ब्रिटिश क्राउन था. जिसे बाद में बदल दिया गया और आज उसकी जगह है राष्ट्रीय चिह्न अशोका स्तंभ है.

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कारगिल युद्ध की शुरुआत भी जाट रेजिमेंट से हुई थी
कारगिल की जंग की शुरुआत जाट रेजिमेंट के नौजवान अफसर लेफ्टन सौरभ कालिया के बलिदान के साथ हुई तो वहीं इसे जीत तक पहुंचाया जाट रेजिमेंट के एक दूसरे नौजवान अफसर अनुज नैयर ने.आजादी के बाद आज जाट रेजीमेंट के नाम पांच युद्ध सम्मान आठ महावीर चक्र 12 कीर्ति चक्र 46 शौर्य चक्र 39 वीर चक्र और 253 सेना मेडल हैं.

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