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योगी आदित्यनाथ की राजनीतिक सेहत पर जाति जनगणना का कितना असर पड़ेगा?

योगी आदित्यनाथ पर जातीय राजनीति के आरोप भले ही लगते हों, लेकिन जाति जनगणना उनके लिए नुकसानदेह साबित हो सकती है. नीतीश कुमार अपवाद हैं, और योगी आदित्यनाथ को भी वैसा ही कोई रास्ता अख्तियार करना पड़ेगा.

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योगी आदित्यनाथ के लिए जाति जनगणना मौजूदा हालात के हिसाब से फायदेमंद तो बिल्कुल नहीं है.
योगी आदित्यनाथ के लिए जाति जनगणना मौजूदा हालात के हिसाब से फायदेमंद तो बिल्कुल नहीं है.

योगी आदित्यनाथ जैसे नेताओं के लिए जाति जनगणना घाटे का सौदा साबित हो सकता है. क्योंकि, योगी आदित्यनाथ की राजनीति का आधार धर्म है, और जाति के हावी होने पर उनको नुकसान उठाना पड़ सकता है. 

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जातिवाद के आरोप तो योगी आदित्यनाथ पर भी लगता है, लेकिन वो मौजूदा हालात में ही चल सकता है. जाति जनगणना के बाद चीजें आबादी के हिसाब से चलेंगी, और तब सिर्फ एक ही फॉर्मूला काम करेगा - जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी हिस्सेदारी.

यूपी की ही तरह बिहार में भी जातीय राजनीति का बहुत बोलबाला है, लेकिन नीतीश कुमार एक बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे तब से कुंडली मारकर बैठे हुए हैं. क्योंकि, अपना जातीय आधार छोटा होने के बावजूद नीतीश कुमार ने राजनीतिक फायदे के हिसाब से अति पिछड़ी जातियों और महादलितों का अलग ही समीकरण तैयार कर नया वोट बैंक गढ़ डाला है - और ये इतना प्रभावी है कि उसके आगे लालू यादव का M-Y समीकरण और बीजेपी के हिंदुत्व का एजेंडा, सभी अब तक फेल होते चले आ रहे हैं. 

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योगी आदित्यनाथ को अपनी राजनीतिक ताकत बरकरार रखने के लिए नीतीश कुमार जैसा ही कोई अलग काम करना होगा, क्योंकि धर्म की राजनीति के अच्छे दिन तो अब जाने वाले हैं. 

हिंदुत्व का एजेंडा कमजोर पड़ सकता है

‘बंटेंगे तो कटेंगे’ जैसे धारदार नारे के साथ योगी आदित्यनाथ की राजनीति जो रफ्तार भर रही थी, जाति जनगणना उसके रास्ते में बड़ा स्पीडब्रेकर है. 

योगी आदित्यनाथ का ये नारा हिंदुत्व की राजनीति का असरदार नारा साबित हो रहा था, लेकिन जातीय राजनीति के हावी होने की सूरत में तो हिंदुत्व का एजेंडा कमजोर ही होगा. हिंदुत्व का एजेंडा कमजोर होगा तो ऐसे नारे अपनेआप पीछे छूट जाएंगे.

फिर तो ‘हल्ला बोल’ और ‘तिलक, तराजू और तलवार…’ जैसे नारों का ही बोलबाला होगा. और वैसी सूरत में जय श्रीराम के नारे को भी मजबूत सपोर्ट की जरूरत पड़ सकती है. लोकसभा चुनाव 2024 के अयोध्या का नतीजा सबसे बड़ा उदाहरण है. ये ठीक है कि समाजवादी पार्टी से मिल्कीपुर सीट छीनकर योगी आदित्यनाथ ने बदला पूरा कर लिया है, लेकिन आगे और भी ऐसी लड़ाइयां लड़नी पड़ेंगी, ये करीब करीब पक्का है. 

जातीय राजनीति का दबदबा बढ़ा तो चुनौतियां भी बढ़ेंगी

जिस तरह लोकसभा चुनाव में बीजेपी की सीटें कम हो जाने के बाद ओबीसी नेता केशव प्रसाद मौर्य सरकार और संगठन में फर्क समझाते हुए योगी आदित्यनाथ पर सीधा हमला बोल रहे थे, ऐसी चुनौतियां और भी बढ़ेंगी. 

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कुछ दिन तक कुलांचे भरने के बाद ऊपर से इशारा होते ही केशव प्रसाद मौर्य के तेवर ठंडे पड़ गये थे, लेकिन आगे भी बिल्कुल ऐसा ही हो, जरूरी तो नहीं है. अभी तो एक ही केशव प्रसाद मौर्य हैं, जाति जनगणना के बाद तो अलग अलग जातियों के नेता भी सामने आएंगे. 

और तब ये भी हो सकता है कि मध्य प्रदेश जैसा प्रयोग यूपी में भी आजमाया जाने लगे, और आलाकमान शिवराज सिंह चौहान की तरह वैकल्पिक इंतजाम भी कर डाले.

एक फायदा ये जरूर हो सकता है कि योगी आदित्यनाथ को तब ठाकुरवाद के आरोपों से मुक्ति मिल जाए. क्योंकि, फिर तो ब्राह्मण नेताओं और दूसरी जातियों के नेताओं को भी उछल कूद का मौका मिलेगा ही.

हिंदू युवा वाहिनी जैसे संगठन बेअसर हो जाएंगे

राजनीति के जिस मुकाम पर योगी आदित्यनाथ पहुंच चुके हैं, उसकी नींव तो गोरखपुर के मठ में ही पड़ी थी, लेकिन उसे शुरुआती विस्तार और ऊंचाई दी योगी आदित्यनाथ के पुराने संगठन हिंदू युवा वाहिनी ने. 

जातीय राजनीति के हावी होने पर हिंदू युवा वाहिनी जैसे संगठनों का प्रभाव तो कम हो जाएगा, लेकिन जाति आधारित संगठनों की संभावना बन सकती है. लेकिन जाति आधारित संगठन भी तभी प्रभावी हो सकते हैं, जब जाति विशेष की आबादी भी बड़ी हो. 

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नीतीश कुमार की बात करें, तो बिहार में उनके पीछे भी जातीय सपोर्ट बड़ा नहीं था, लेकिन उनकी सियासी तरकीब कामयाब रही है. 

बीजेपी शासित राज्यों में वैसे तो योगी आदित्यनाथ के भी बुलडोजर रूल का बोलबाला है, लेकिन नीतीश कुमार की तरह जातियों की सोशल इंजीनियरिंग अब तक वो नहीं कर पाये हैं - और योगी आदित्यनाथ को मदद भी वैसे ही किसी उपाय से मिल सकती है. 
 

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